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जहां मोदी बेरोज़गारी के लिए चिंता जताते हैं, वहीं उनका सरकारी बजट वर्ग युद्ध को और तीखा करता है

यह आलेख 16 अगस्त 2024, को अंग्रेजी में छपे लेख While Modi professes concern for the jobless, his government’s budget escalates class war का हिंदी अनुवाद है।

भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल के पहले बजट ने दिखाया है कि वो और उनकी हिंदी बर्चस्ववादी भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सरकार की मंशा उनके वर्ग युद्ध के एजेंडे पर आगे बढ़ने वाली है।

पिछले बसंत में बहुत महत्वपूर्ण चुनाव में बीजेपी के संसदीय बहुमत खोने के साथ ही, इस बात पर मीडिया में बहुत कुछ गया कि बीजेपी राजनीतिक रूप से कमज़ोर हो गई है और पहले से आकार में छोटी हो गई बीजेपी अब विपक्ष को अधिक जगह देने पर मज़बूर होगी और जनता के दबाव के सामने झुकेगी। कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्षी इंडिया गठबंधन (इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इनक्लुसिव अलायंस), जिनमें स्टालिनवादी संसदीय पार्टियां भी शामिल हैं, उन्होंने इसी तरह के दावे किए थे। 

लेकिन ये सारी बातें भ्रम साबित हुईं। 

आम चुनावों के लिए चेन्नई में, मंगलवार, 9 अप्रैल 2024 को चुनाव प्रचार करते हुए, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी का चिह्न, कमल, दिखाते हुए। (एपी फ़ोटो) [AP Photo/AP Photo]

फिर से बनी सरकार, जिसे मीडिया ने 'मोदी 3.0' सरकार कहा था, अपने पहले कार्यकाल की तरह की उसी धुर दक्षिणपंथी रास्ते को अख़्तियार कर रही हैः साम्प्रदायिकता को हवा देना, विरोधी नेताओं का उत्पीड़न करना, चीन के ख़िलाफ़ वॉशिंगटन की भड़काऊ सैन्य रणनीतिक आक्रामकता में भारत की साझेदारी को और विस्तारित करना और मज़दूर विरोधी 'निवेश समर्थक' नीतियों को लागू करना।

23 जनवरी को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश किए गए 2024-2025 के बजट में बड़े व्यवसायों के हितों वाली नीतियों को और बढ़ा दिया गया है जिन्हें मोदी और उनकी बीजेपी मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से लगातार लागू कर रही है। इसमें कार्पोरेट टैक्स में भारी भरकम कटौती करना, मुकेश अंबानी और गौतम अडानी जैसे अरबपतियों के हाथों सरकारी संपत्तियों को कौड़ियों के मोल बेचना, सामाजिक खर्चों में कटौती करना और 'बिज़नेस फ़्रेंडली' विशेष आर्थिक क्षेत्रों का और विस्तार करना शामिल है।

इस बजट में नीति को लेकर ज़रा भी बदलाव नहीं दिखा, जबकि सरकार इसे 'नौकरी पैदा करने वाला' बजट बता कर शोर मचा रहा है। हालांकि इस 'बदलाव' को क़रीब से देखने पर, यह एक जुमला और नौकरी पैदा करने वाली स्कीमें, बड़े व्यवसायों को सरकार की ओर से भारी सब्सिडी देने वाला एक और तंत्र ही दिखता है। 

नौकरियां पैदा करने पर बजट का कथित फोकस बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी, ख़ासकर युवाओं के बीच बढ़ते गुस्से को कम करने का एक ऊपरी प्रयास भर था। यह गुस्सा पिछले वसंत के चुनाव में भाजपा की 60 से अधिक सीटों की हार का एक प्रमुख कारक था।

हालांकि बड़ी हील हुज्जत के साथ ये स्वीकार करने पर मजबूर होना पड़ा कि बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या है, लेकिन सीतारमण ने ये जताने की भरसक कोशिश की कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया के लिए ईर्ष्या का विषय है। विश्व अर्थव्यवस्था की संकटपूर्ण स्थिति की ओर इशारा करने के बाद, उन्होंने अपने बजट भाषण में, 'भारत की आर्थिक वृद्धि को अपवाद रूप से बेहतरीन बताया' और कहा कि 'आने वाले सालों में भी ये इसी तरह बढ़ेगी।'

उन्होंने दावा किया कि बजट खर्च, 1947 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के ख़ात्मे के एक सदी बाद, 2047 तक भारत के 'विकसित भारत' बनने के मोदी सरकार के दावे के अनुरूप था।

सीतारमण ने भारतीय अर्थव्यवस्था की जो गुलाबी तस्वीर पेश की, वो कई मोर्चों पर भारी संकट से जूझ रही है। इसमें कम निजी पूंजी निवेश, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश में गिरावट, चक्रवृद्धि तरीके से बढ़ता सरकारी कर्ज़, भारी ग़रीबी, ख़राब मानवीय बुनियादी सुविधाएं और बड़े पैमाने पर फैली बेरोज़गारी और अर्द्ध रोज़गार शामिल है। 

बजट व्यय जो घोषित किया गया वो 48.3 ट्रिलियन रुपये या 575 अरब डॉलर का है। जबकि इसके मुकाबले भारत के बराबर आबादी वाले चीन का 2024 का बजट 4 ट्रिलियन डॉलर है। भारत के बजट का एक बड़ा हिस्सा, क़रीब 190 अरब डॉलर या 33.4 प्रतिशत का इंतज़ाम सरकारी कर्ज़ों से किया जा रहा है। 

बजट व्यय का एक बड़ा हिस्सा, यानी, 138.45 अरब डॉलर या 11.63 ट्रिलियन रुपये, जोकि पूरे बजट का 24 प्रतिशत बनता है, वो संचित सरकारी कर्ज़ों के ब्याज़ का भुगतान करने में जाता है।

इसके अलावा भारत के बजट का 13 प्रतिशत हिस्सा, सेना और भारत के ब्लू वॉटर नेवी के विकास और ट्रायड (थल, वायु और पानी के अंदर) परमाणु हथियारों की तैनाती की क्षमता के लिए आवंटित किया गया है।  

2024-2025 के वित्त वर्ष के लिए सेना का बजट 6.2 ट्रिलियन रुपये या 74 अरब डॉलर रखा गया है। यह 2023-24 के बजट में सेना को किए गए आवंटन से 4.4 प्रतिशत अधिक है, जो खुद 2022-23 के मुकाबले 13 प्रतिशत अधिक था। भारत का सैन्य खर्च दुनिया में अमेरिका, चीन और रूस के बाद चौथा सबसे बड़ा सैन्य बजट है।

जैसा कि पहले से पता है, इतने बड़े पैमाने पर हथियारियों की ख़रीद चीन को देख कर की जा रही है। नई दिल्ली भारत चीन बॉर्डर पर सड़कों, एयरपोर्ट और किलेबंदी पर भी अपने खर्च को बढ़ा रही है, जहां पिछले चार सालों से दोनों पक्षों में तनाव चल रहा है और संघर्ष की स्थिति बनी हुई है। बॉर्डर रोड्स आर्गेनाइजेशन को आवंटन में 30 प्रतिशत बढ़ोत्तरी मिली है। 

भारत दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश रहा है। लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था और इसकी वैश्विक शक्ति को बढ़ाने की मोदी की योजना का मुख्य हिस्सा हथियार निर्यात उद्योग को विकसित करना है, जिसमें अमेरिकी हथियार निर्माताओं के लिए भारत को, एक सस्ते श्रम वाला सब कांट्रैक्टर बनाना शामिल है। 

मोदी सरकार ने बजट में सेना को जितनी राशि आवंटित की है वो देश के स्वास्थ्य और शिक्षा बजट को मिलाकर उसका तीन गुना बैठता है। सरकारी स्कूली शिक्षा, साक्षरता कार्यक्रमों और आईआईटी जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों पर कुल 1.21 ट्रिलियन रुपये या 14.3 अरब डॉलर का खर्च आवंटित किया गया है। स्वस्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को 909 अरब रुपये या 11 अरब डॉलर का आवंटन किया गया है जोकि हर भारतीय पुरुष, महिला और बच्चे के लिए 8 डॉलर (क़रीब 640 रुपये) से भी कम बैठता है। 

घरेलू और विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए मोदी सरकार ने फिर से हाईवे, बंदरगाह, रेलवे और बिजली उत्पादन जैसे भारत के खस्ताहाल आधारभूत ढांचे को सुधारने के लिए बजट का एक बड़ा हिस्सा आवंटित किया है। क़रीब 11.11 ट्रिलियन रुपये या 132 अरब डॉलर, जोकि बजट के पांचवें हिस्से से भी अधिक होता है, आधारभूत ढांचे वाले प्रोजेक्टों पर खर्च किया जाएगा। इस तरह के सरकारी खजाने से पूंजीवादी विकास, निजी कंपनियों को बेहिसाब मुनाफा पहुंचाते हैं। ये दोनों को फायदा पहुंचाता है- ख़ासकर उन्हें जिन्हें इन ढांचों को बनाने या व्यवस्था करने के लिए आकर्षक ठेके मिलते हैं और उन्हें जिनकी घरेलू और वैश्विक बाज़ार में बहुत आसान पहुंच है। 

मोदी सरकार ने लगातार कार्पोरेट टैक्स में कटौती की है और उसने अपने ताज़ा बजट में ये फिर से किया है। उसने विदेशी कंपनियों पर टैक्स दर को 40 प्रतिशत से घटाकर 35 प्रतिशत कर दिया है। 

अपने बजट भाषण में सीतारमण ने दावा किया कि बीजेपी का बजट, भारत की 'चार बड़ी जातियों' के विकास में मदद पर केंद्रित हैं, जिनको उन्होंने ग़रीब, महिला, नौजवान और किसान के रूप में परिभाषित किया। यह 'जातिगत वर्गीकरण' असल में कांग्रेस की अगुवाई वाले इंडिया गठबंधन पर राजनीतिक निशाना साधने के लिए था। क्योंकि इंडिया गठबंधन ने राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू जातियों की जनगणना और केंद्रीय स्तर पर आरक्षण की सीमा को बढ़ाने का नारा दिया है, जिसे वह 'सामाजिक न्याय' के एजेंडे के तौर पर प्रस्तुत करता है। असल में आरक्षण के दायरे को बढ़ाना और मजबूत करना एक दक्षिणपंथी योजना है जो केवल 'न्यायसंगत' पूंजीवादी ग़ैरबराबरी को बढ़ाने और लोगों को वर्ग संघर्ष से दूर ले जाने और पूंजीवादी लाभ प्रणाली के ख़िलाफ़ लड़ाई की बजाय, इसे जातीय संघर्षों में बदलने का काम करेगी।

जैसा कि लग ही रहा था, ग़रीब, महिलाओं, नौजवानों और किसानों की मदद करने की सीतारमण की जुमलेबाज़ी पूरी तरह खोखली साबित हो गई। 

ग़रीबी की चक्की में पिस रहे प्रति दिन 3.10 डॉलर (260 रुपये) से भी कम आमदनी में जीने वाले कम से कम 80 करोड़ लोगों के जीवन स्तर को सुधारने के लिए कोई गंभीर उपाय नहीं किए गए। नौकरी के संकट और रोज़ाना इस्तेमाल होने वाले खाद्य पदार्थों के दामों में लगातार बढ़ोत्तरी के कारण, इन सबसे शोषित मज़दूरों और इनके परिवारों की सामाजिक स्थिति तबसे और बदतर हालत में पहुंच गई है जब 2020-2021 में आई कोविड-19 महामारी के चरम पर सरकार ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया था। 

सरकार सब्सिडी को लगातार घटा रही है और खर्चों में भी कटौती कर रही है, ये दावा करते हुए कि रोजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में कर्ज के अनुपात, 4.9 प्रतिशत, को इस वित्तीय वर्ष में कम किया जाएगा और अगले साल इसे 4.5 प्रतिशत पर लाया जाएगा। 'चार जातियों' के 'विकास' के लिए सीतारमण ने जो स्कीमें बताईं, वो सभी 'पब्लिक प्राइवेट' पार्टनरशिप हैं। महिला 'उद्यमियों' को छोटे स्तर पर पकौड़े बनाना, डिब्बा बंद भोजन और इसी तरह के अन्य सामान बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना है। इस 'महिला सशक्तिकरण' के लिए सरकार की ओर से छोटे छोटे लोन दिए जाएंगे। 

सीतारमण ने घोषणा कि कि मोदी सरकार ने नौकरी सृजन के लिए दो ट्रिलियन रुपये यानी 24 अरब डॉलर का बजट आवंटित किया है, जबकि उद्योगों को पहली बार के कर्मचारियों को भर्ती करने के लिए तीन अलग अलग तरह की सब्सिडी की घोषणा की गई। उन्होंने आगे दावा किया कि अगले पांच साल में इससे 4.1 करोड़ युवाओं को रोज़गार मिलेगा, जोकि बिल्कुल मनगढ़ंत आंकड़ा है। 

इन स्कीमों के तहत, भारत के बड़े और मझोले उद्योगों को सब्सिडी के तौर पर अरबों डॉलर की सब्सिडी दी जाएगी, जबकि इसकी कोई गारंटी नहीं है कि कंपनी इन स्कीमों का इस्तेमाल पुराने कर्मचारियों को निकालने के लिए नहीं करेंगी या जो लोग काम कर रहे हैं उन्हें सब्सिडी ख़त्म होने के बाद दूसरे सब्सिडी वाले वर्करों को रखने के लिए नहीं निकालेंगी.

निश्चित तौर पर बेरोज़गार लोगों की कोई कमी नहीं है। भारत के सेंटर फ़ॉर मॉनिटरींग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार, 15 से 29 साल के युवाओं के बीच बेरोज़गारी की दर 45 प्रतिशत से अधिक है। हालांकि ये भी आंकड़े कमतर करके दिए गए हैं क्योंकि सीएमआईई ने सप्ताह में एक घंटे काम करने वालों को भी 'रोज़गार युक्त' माना है। 

निजी कंपनियों को नए कर्मचारी रखने के बदले और 'फायदा पहुंचाने' के लिए सरकार ने 1000 औद्योगिक ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में युवाओं को ऐसी औद्योगिक ट्रेनिंग देने की योजना लेकर आई है जैसा कंपनी मालिकों को ज़रूरत है। 

नौकरी सृजन की एक स्कीम ऐसी है जिसमें सरकार नए कर्मचारी को भर्ती करने के लिए कार्पोरेशन को प्रति कर्मचारी पहले महीने 15000 रुपये तक की सैलरी देगी।

दूसरी स्कीम है जिसमें सरकार कंपनी और नए कर्मचारी का पीएफ़ भरेगी, जोकि रिटायरमेंट सेविंग अकाउंट होता है। 

बजट में ग्रामीण इलाकों के बेहद ग़रीबों के लिए रोज़गार सृजन की भी चिंता नहीं है, जो हाथ से मिलने वाला कोई भी काम करके जैसे तैसे अपना जीवन यापन करते हैं।

महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी एक्ट (मनरेगा) को 2005 में लाया गया था, इसका भी बजट कम कर दिया गया। 

इस क़ानून के तहत ग्रामीण परिवार के एक सदस्य को हर साल, हाथ के काम वाले 100 दिनों के काम की गारंटी है, जैसे कि गड्ढे खोदना। 

मनरेगा में काम मांगने वाले हमेशा से अधिक लोग रहे हैं, जबकि सरकार की 'रोज़गार गारंटी' के दावों के बावजूद योग्य लोगों को आम तौर पर लौटा दिया जाता है। जबकि मोदी सरकार इस योजना के लिए 860 अरब रुपये या 10.2 अरब डॉलर का आवंटन कर रही है।  

मोदी सरकार ने जिन अन्य 'दो जातियों' की मदद पर ध्यान देने का ज़िक्र किया है- किसानों और ग़रीबों का- इन दोनों समूहों को फायदा पहुंचाने वाली योजनाओं का बजट आवंटन घटा दिया गया है।  

कृषि और इससे जुड़े उद्योगों के लिए 1.52 ट्रिलियन रुपये या 18 अरब डॉलर का बजट पूरी तरह से किसानों द्वारा खेती के 32 क्षेत्रों और बागवानी फसलों की 109 'नई उच्च उपज वाली और जलवायु-उपयुक्त किस्मों को विकसित' करने पर केंद्रित है।

दूसरी तरफ़ किसान अपनी लागत को कम करने के लिए जिस खाद सब्सिडी पर बहुत निर्भर रहते हैं, उसमें कटौती करके उसे 1.64 ट्रिलियन रुपये या 20 अरब डॉलर कर दिया गया है। यह 35 प्रतिशत की कटौती है, जिसमें भारी महंगाई दर को शामिल नहीं किया गया है। 2022-2023 वित्तीय वर्ष में यह आवंटन 2.51 ट्रिलियन रुपये या 32 अरब डॉलर था। जबकि 2023-2024 वित्त वर्ष में आवंटित 1.9 ट्रिलियन रुपये या 23 अरब डॉलर के मुकाबले भी यह बहुत बड़ी कटौती है। 

जहां तक ग़रीबों की बात है, सरकार ने डिपार्टमेंट ऑफ़ फ़ूड एंड पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन (पीडीएस) के आवंटन में भी कटौती करना जारी रखा है। 2024-2025 के बजट में इस मद में 2.13 ट्रिलियन रुपये या 25 अरब डॉलर की राशि आवंटित की गई, जबकि 2022-2023 में 2.8 ट्रिलियन रुपये या 36 अरब डॉलर का इस मद में वास्तविक खर्च था। 

कुछ मध्य वर्ग समेत भारत के कुल 95 करोड़ लोग पीडीएस पर निर्भर हैं, जहां से उन्हें रियायती दरों पर गेहूं, चावल, चीनी, केरोसिन और खाद्य तेलों को उपलब्ध कराया जाता है। संयुक्त राष्ट्र की कई एजेंसियों के अनुसार, भारत की 75 प्रतिशत आबादी, जोकि एक अरब लोग होते हैं, पोषण युक्त भोजन नहीं ख़रीद सकते।

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